राकेश
जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न भारतीय समाज की गहरी और पुरानी समस्या है। हालांकि कानूनी प्रावधान और संविधान से सुरक्षा की गारंटी है पर वास्तव में जातिगत भेदभाव निरंतर मौजूद है। उत्तराखंड के जोशीमठ ब्लॉक के सुभाईं गाँव में हाल ही में घटित घटना ने इस भेदभाव और उत्पीड़न को फिर से उजागर कर दिया है।
सुभाईं गाँव में दलित परिवारों पर धार्मिक आयोजन के दौरान ढोल न बजाने के आरोप में जुर्माना लगाने और सामाजिक बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया गया। इस घटना ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि आज भी समाज जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के गर्त में पड़ा है। आज भी हमारे समाजों में व्यक्ति की जाति के आधार पर ही उसके साथ व्यवहार करना तय होता है। ग्रामीण जीवन में आज भी जाति ही तय करती है कि आपको दूध की चाय दी जाएगी या बिना दूध की। जाति ही तय करती है कि आप चाय की ट्रे से खुद चाय उठाएंगे या आपको कोई और चाय उठाकर देगा। आपको घर में कितने अंदर तक आने देना है यह आपकी जाति तय करती है। आप गांव की शादियों में निमंत्रण होने के बाद भी भोज में शामिल नहीं हो सकते हालांकि आपके द्वारा दी गई भेंट ले ली जाएगी। हो सकता है आप और आप जैसे लोगों को अलग राशन दे दिया जाए। आपकी जाति ही यह तय करेगी कि आप शादियों में ढोल-नगाड़ा बजाएंगे या पंडित बनकर बड़े मान-सम्मान से शादी की रस्में कराएंगे। यदि आप ढोल बजाते हैं और यह आयोजन रात का हुआ तब आपको बाहर ही सोना पड़ेगा क्योंकि ढोलिया यानी ढोल बजाने वाला अंदर नहीं सो सकता। अगर आप थोड़े जागरूक हैं तो आपको बार-बार सुनना पड़ सकता है कि सर पर चढ़ गए हैं।
हाल ही में उत्तराखंड के जोशीमठ ब्लॉक के सुभाईं गाँव ने व्यापक चर्चा बटोरी जब गाँव के दलित परिवारों ने 15 जुलाई को जोशीमठ कोतवाली में शिकायत दर्ज कराई कि एक धार्मिक आयोजन में ढोल न बजाने पर गाँव के सवर्णों ने उन पर पाँच हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया। साथ ही उनके सामाजिक बहिष्कार और गाँव से निर्वासन का प्रस्ताव भी पारित किया गया। शिकायत में जातिसूचक शब्दों के प्रयोग का भी आरोप लगाया गया। इस मामले से संबंधित पंचायत के वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुए हैं। इस प्रकरण में जोशीमठ कोतवाली में मुकदमा दर्ज कर लिया गया है।
जोशीमठ के सुभाईं गाँव की घटना कोई अकेली घटना नहीं है। ऐसी घटनाएं निरंतर हो रही हैं। हाल के दिनों में इस तरह की अनेक घटनाएं घटी हैं पिछले दिनों 10 जुलाई 2024 को चंपावत जिले के गुदमी गांव में राहत सामग्री बांटने गई महिला ग्राम प्रधान के गले में बहस के दौरान जूतों की माला डाल दी गई। महिला ग्राम प्रधान अनुसूचित जनजाति से हैं। इस मामले में एफआईआर दर्ज की गई है और जांच चल रही है। 16 जून 2024 को पौड़ी के कल्जीखाल ब्लॉक के थनुल गाँव में एक दलित परिवार के पुत्र और माता के साथ सवर्णों द्वारा मारपीट, गाली-गलौज और जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किया गया। इस मामले में 27 जून 2024 को प्रादेशिक शिल्पकार कल्याण समिति ने जिलाधिकारी, पौड़ी को पत्र भेज कर कार्रवाई की मांग की। 23 जून 2024 को द्वाराहाट के एक गाँव में 19 वर्षीय दलित युवती को जबरन नशीला पदार्थ पिलाकर बलात्कार किया गया। पुलिस ने आरोपी युवक को गिरफ्तार कर लिया है। पीड़िता के परिवार ने अन्य युवकों के भी शामिल होने का संदेह जताया है। 29 जून 2024 को अल्मोड़ा जिले के ताड़ीखेत ब्लॉक के एक दूरस्थ गाँव में 14 वर्षीय दलित लड़की के साथ एक सवर्ण व्यक्ति द्वारा दुष्कर्म किया गया। इस मामले में युवती के पिता की शिकायत पर राजस्व पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 17 कहता है कि “अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है और किसी भी रूप में इसका अभ्यास निषिद्ध है। अस्पृश्यता से उत्पन्न किसी भी अक्षमता को लागू करना कानून के अनुसार दंडनीय अपराध होगा।” संविधान के अनुच्छेद 17 ने अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त कर दिया और इसे दंडनीय अपराध बना दिया। लेकिन इस विशेष शब्द का वास्तव में क्या अर्थ है, यह अनिश्चित रहा क्योंकि इसे संविधान में परिभाषित नहीं किया गया । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35 (ए) (ii) ने संसद को अनुच्छेद 17 के तहत वर्णित अपराधों के लिए दंडात्मक कानून बनाने की शक्ति दी। नतीजतन, 1955 का अस्पृश्यता अपराध अधिनियम (जिसका नाम बदलकर नागरिक स्वतंत्रता संरक्षण अधिनियम कर दिया गया) सामने आया, जिसमें किसी व्यक्ति को पूजा स्थल में प्रवेश करने या टैंक या कुएँ से पानी लेने से रोकने के लिए दंड का प्रावधान किया गया। इसके बाद आये कानून अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ भेदभाव और उत्पीड़न को ख़त्म करने पर केंद्रित थे। इनमें शामिल हैं अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2015 इसी तरह एसी एसटी एक्ट विशेष रूप से दलितों और आदिवासियों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए बनाया गया है। इस अधिनियम के तहत, जातिसूचक शब्दों का प्रयोग, सामाजिक बहिष्कार, और जातिगत हिंसा गंभीर अपराध माने जाते हैं और इसके लिए कड़ी सजा का प्रावधान है। इतने कड़े कानून होने के बाद भी उत्तराखंड में ऐसी पंचायतें अभी भी मौजूद हैं जो ढोल न बजाने को इतना बड़ा अपराध मानती हैं कि इसके लिए पूरे दलित समाज का बहिष्कार किया जाए और निर्वासन की धमकी दी जाए। भले ही यह दावा किया जाता रहे कि दलितों के साथ भेदभाव अब नहीं होता, लेकिन सच्चाई यह है कि लोगों के दिमागों में जातियों की गंदगी भरी पड़ी है।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि उत्तराखंड में जातीय भेदभाव और उत्पीड़न की घटनाएं लगातार जारी हैं। दलित उत्पीड़न की घटनाओं के बीच यह विचारणीय है कि हम कब तक जाति और जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव को बर्दाश्त करते रहेंगे? जातीय श्रेष्ठता का नकली बोध हमारे समाज पर इस कदर हावी है कि संविधान के समानता के प्रावधान और कानून का भय इसके सामने बेअसर नजर आता है। यदि हमें एक स्वस्थ मानसिकता वाले समाज के रूप में प्रगति करनी है तो हमें ऐसी पुरानी, पिछड़ी मानसिकताओं से छुटकारा पाना होगा। इसके लिए केवल संविधान और कानून पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर निरंतर और अनवरत संघर्ष की आवश्यकता है।