बिजू नेगी
इस बार मैं एक चित्रकला की बात करना चाहता हूं-एक महान चित्रकला की; एक महान चित्रकार की एक महान चित्रकला की बात। चित्र कार हैं पाब्लो पिकासो और उनके जिस चित्र का जिक्र है, उसका शीर्षक है- “गर्निका”।
इस बार इस पर लिखने के दो कारण हैं। महत्वपूर्ण वजह है कि 21 सितंबर को “विश्व शांति दिवस” होता है और 2 अक्टूबर को “अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस”। तो सही ही होगा इस समय “गर्निका” के मार्फत शांति और अहिंसा की बात करना- पिकासो की एक कृति जो दुनियाभर में व्याप्त युद्ध व हिंसा के माहौल में एक चिंता, एक चेतावनी, एक ढाढस, एक हिम्मत का प्रतीक है। दूसरा कारण है कि हाल ही में मैंने “गर्निका” का चश्मदीद अनुभव किया।
इस्पानी चित्रकार पाब्लो पिकासो (25 अक्टूबर 1881-8 अप्रैल 1973) की गणना सभंवतः दुनिया के सर्वाधिक ख्याति प्राप्त चित्रकार के तौर पर होती है। उन्होंने गर्निका की रचना 1937 में की और जिस के पीछे त्रासदी और संघर्ष का एक पूरा इतिहास है। थोड़ा उस पर नज़र डालते हैं।
1936 में इस्पानी सरकार ने पाब्लो पिकासो को राजधानी मैडिडू स्थित “इस्पानी राष्ट्रीय कला संग्रहालय” का निदेशक नियुक्त किया। पिकासो उस समय, पिछले तीन साल से, कला-संसार की राजधानी पेरिस (फ्रांस) में रह रहे थे। नियुक्ति के साथ, सरकार की यह भी अपेक्षा थी कि पिकासो स्पेन लौटें, मगर पिकासो ने अपने देश लौटने से मना कर दिया। शायद इसका एक कारण, स्पेन में उस समय का राजनीतिक माहौल भी था और जिस कारण अपने जीवन काल में वे स्पेन फिर कभी लौट भी नही पाए।
1936 में ही, स्पेन में आम चुनाव के बाद वामपंथ व समाजवाद समर्थित रिपब्लिकन पार्टी की सरकार बनी। मगर सेना, धर्मावलंबियों व बड़े जमीन मालिकों
द्वारा समर्थित दक्षिणपंथी विपक्षी राष्ट्रवादी पार्टी ने सैनिक छावनियों से सशस्त्र विरोध न शुरू कर दिया जो फिर देशभर में इस्पानी गृहयुद्ध में तब्दील हो गया।
शुरू में, अपनी हिफाजत की दृष्टि से, यूरोप के दो दर्जन से अधिक देशों ने स्पेन में हस्तक्षेप न करने का आपसी समझौता किया। मगर नात्सी जर्मनी व इटली ने स्पेन में राष्ट्रवादियों के पक्ष में फौज, टैंक व हवाई जहाज और रूस ने रिपब्लिकन के पक्ष में सशस्त्र हस्तक्षेपकर उस समझौते का उल्लंघन कर दिया। गृहयुद्ध लगभग एक तरफा होते जाने और मार्च 1939 में, राजधानी मैडिड्र पर कब्जा कर लेने के बाद इस्पानी गृहयुद्ध में राष्ट्रवादियों की जीत के साथ जनरल फ्रैंसिस्को फ्रैंको की तानाशाही की स्थापना हुई जो 1975 में उनकी मृत्यु तक जारी रही। 1939 तक दूसरा विश्व युद्ध भी शुरू हो चुका था।
वापस पिकासो पर आते हैं। जनवरी 1937 में इस्पानी सरकार ने आगामी मई- नवंबर महीनों में पेरिस में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में इस्पानी मंडप के लिए पिकासो के साथ एक भित्तीचित्र बनाने का इकरारनामा किया और पिकासो ने अगले दो-तीन महीने उस पर आरम्भिक अध्ययन व कच्चे रेखाचित्र बनाना शुरू भी कर दिया।
मगर तभी 26 अप्रैल 1937 को गर्निका की घटना हुई।
फ्रांस की सीमा पर बिस्के की खाड़ी से लगता, गर्निका एक कस्बा था। वह सोमवार का दिन था जो स्थानीय लोगों के लिए “बाजार” का दिन था। अधिकतर स्थानीय पुरुष रिपब्लिकन सेना में होने से गर्निका बाजार में उस सुबह कमोबेश औरतों और बच्चों का ही जमावड़ा था कि एकाएक
जर्मन कॉरडोरलीजन के हवाई जहाजों ने गर्निका के आसमान में घुसकर दनादन बमबारी शुरू कर दी। तीन घंटे के इस
तांडव में पूरा गर्निका जमींदोज हो गया और दौ सौ से ज्यादा नागरिक – ज्यादाकर औरतें व बच्चे-हताहत हुए।
28 अप्रैल को “द टाइम्स” व “न्युयॉर्क टाइम्स” में पत्रकार जार्ज स्टीयर का गर्निका पर हमले का चश्मदीद वर्णन छपा कि किस तरह तीन तरह के जर्मन बम वर्षकों ने 1000 पौंड तक वजन के बमों का इस्तेमाल कर गर्निका को तहस- नहस किया और उसके बाद हवाई जहाजों ने खेतों में शरण ले रहे नागरिकों को चुन- चुनकर गोलियों का निशाना बनाया।
इस घटना से व्यथित, कवि हुआन लैरिआ तुरन्त पिकासो से मिले और पेरिस प्रदर्शनी के लिए पूर्व निर्धारित विषय को छोड़ गर्निका पर बमबारी को अपने चित्र का विषय बनाने का आग्रह किया। अखबार में छपे विवरण से पिकासो भी गंभीर तौर पर व्यथित थे और उन्होंने तुरंत ही हुआन लैरिआ का सुझाव स्वीकार करते हुए प्रदर्शनी के लिए तैयार आरम्भिक रेखाचित्रों की जगह, गर्निका-त्रासदी पर ही पूरा ध्यान केन्द्रित किया। उन्होंने पूरा चित्र मात्र 35 दिन में पूरा कर दिया। यह देखते हुए कि वह चित्र 11 फीट 5 इंच लंबे व 25 फीट 6 इंच चौड़े विशाल कैनवास पर फैला हुआ था, उसका इतने कम समय में पूरा करना अपने आप में अद्भुत तो था ही, वह पिकासो का विषय के प्रति तात्कालिक व तीव्र आग्रह को भी रेखांकित करता है।
पेरिस में प्रदर्शनी के बाद, “गर्निका”
यूरोप के कई देशों व अमरीका में कई शहरों में प्रदर्शनियों का हिस्सा बनी और दुनिया का ध्यान स्पेन की व्यथा की ओर खींचा। 1939 में स्पेन में फ्रैंको की विजय के बाद जब उसी साल “गर्निका” अमरीका न्यूयॉर्क के आधुनिक कला संग्रहालय में “पिकासो की कला के 40 साल” की प्रदर्शनी का हिस्सा बनने पहुंची तो पिकासो ने शर्त रखी-जिसके लिए उन्होंने बाकायदा एक कानूनी दस्तावेज भी तैयार कराया- कि जब तक स्पेन में फ्रैंको का शासन रहेगा और जब तक वहां लोकतंत्र व सार्वजनिक स्वतंत्रता व लोकतांत्रिक संस्थानों की बहाली नही होती, “गर्निका” का स्पेन में प्रवेश नही होगा। साथ ही, “गर्निका” के राजनीतिक मायने व प्रभाव को समझते हुए और फ्रांस पर नात्सियों द्वारा कब्जे की
संभावनाओं की आशंका को देखते हुए,
पिकासो ने “गर्निका” की भविष्य में संपूर्ण रखरखाव के लिए न्यू यॉर्क के आधुनिक कला संग्रहालय को पूर्णाधिकार दे दिया। उसके बाद, अगले 15-20 साल, उसी संग्रहालय तत्वाधान के में ”गर्निका'” दुनियाभर में प्रदर्शित होती रही। अपनी इन यात्राओं में “गर्निका” युद्ध व हिंसा से लोक व समाज में अकल्पनीय त्रासदी के एक वृहद स्वरूप के तौर पर स्वीकार्य हुई और दुनियाभर के तमाम कला-मर्मज्ञों व कला समीक्षकों ने उसे विश्व इतिहास में युद्ध के खिलाफ सर्वाधिक मार्मिक व सशक्त
दस्तावेज माना। 1956 में, पिकासो के 75 वें जन्म दिन के अवसर पर न्यू यॉर्क के आधुनिक कला संग्रहालय में आयोजित पुनरावलोकन प्रदर्शनी के अवसर पर विश्वभर के कला प्रेमियों ने चिंता व्यक्त की कि अत्यधिक यात्राओं से “गर्निका” की हालत जर्जर होने लगी थी। अतः निर्णय लिया गया कि वह अब कहीं बाहर नही ले जायी जाएगी और न्यू यॉर्क के आधुनिक कला संग्रहालय में ही रहेगी।
1968 में इस्पानी तानाशाह फ्रैंको ने “गर्निका” स्पेन लाने की तीव्र इच्छा जाहिर की, लेकिन पिकासो ने अपनी पूर्ववर्ती शर्त पर कायम रहते हुए फ्रैंको के आग्रह को पुरजोर मना कर दिया।
पिकासो की मृत्यु 1973 में हुई और दो साल बाद फ्रैंको की भी। उसके बाद, एक नये संविधान के साथ, स्पेन में प्रजातांत्रिक संवैधानिक राजशाही की स्थापना हुई और “गर्निका” को स्वदेश लौटाने की मांग तेज होने लगी। न्यू यॉर्क का आधुनिक कला संग्रहालय भी अपनी सर्वाधिक बहुमूल्य चित्रकला को यूं ही नही जाने देना चाहता था और काफी दबाव व व्यापक वार्ता के बाद ही, 1981 में-पिकासो के जाने के आठ साल और फ्रैंको के जाने के छः साल बाद- “गर्निका” अंततः अपने देश लौटी। वह साल, पिकासो का शताब्दी साल भी था! पिकासो की वसीयत के अनुसार, “गर्निका” को राजधानी मैडिडू के प्रादो संग्रहालय – पिकासो जिसके “निर्वासन में निदेशक” रहे थे- में स्थापित किया गया। 1992 में “गर्निका” को मैडिडू में ही स्थित रीना सोफिया संग्रहालय में स्थानांतरित किया गया, जहां वह आज भी है। “गर्निका” में ऐसा क्या है कि वह युद्ध
व हिंसा के खिलाफ एक महान प्रतीक बन गयी, जबकि उसमें युद्ध का किसी तरह का चित्रण नही है। प्रथम दृष्टा उसमें हम क्या देखते हैं ? – अपनी बाहों में मृत बच्चा लिए एक शोकाकुल औरत; जख्म के दर्द में कराहता एक घोड़ा गिरा हुआ; एक सांड उसे घोचने को तैयार; पीड़ित घोड़े के ऊपर लटकता रोशनी का एक बल्ब; एक
विखंडित मृत सिपाही, उसके कटे हुए हाथ में एक खंडित तलवार जिससे एक फूल उग रहा है; एक भयातुर औरत का सिर व फैला हाथ खिड़की से लपकता हूआ। यह सब युद्ध के तो नही बल्कि युद्ध-पश्य परिस्थिति के दृष्य हैं जो कला मर्मज्ञों के अनुसार अराजकता, विनाश व पीड़ा तथा विपत्ति में मानवीय प्रतिरोध क्षमता व हिम्मत के प्रतीक हैं। वैसे पिकासो का कहना था, “यह चित्रकार पर नहीं है कि वह प्रतीकों को परिभाषित करे। जनता जो उस चित्र को देख रही है, उसे अपनी समझ के अनुसार ही उसके प्रतीकों की व्याख्या करनी होगी।”गर्निका” निसंदेह पिकासो का सर्वाधिक सशक्त राजनीतिक कथन है जो हिरोशिमा-नगासाकी व उन तमाम हादसों का जिनमें निरीह नागरिकों का नरसंहार हुआ है, प्रतीक बन गयी है और आज भी दर्शकों को युद्ध व हिंसा के असुविधाजनक सवालों से रूबरू कराती है। पिकासो ने इसे गर्निका कस्बे पर अमानवीय बमबारी से विचलित होकर कैनवास पर उतारा था, मगर चित्र में उस हमले विशेष का कुछ भी चित्रित न कर, उन्होंने एक ऐसी रचना कर डाली जो समय व काल से परे मानवीय पीड़ा, शोक व हिम्मत को रेखांकित करती है और जो दुनियाभर की सांस्कृतिक व भाषायी सीमाओं से कहीं आगे जाकर वैश्विक दर्शकों के विमर्श व चिंतन का हिस्सा बन गयी। कला के स्तर पर भी, युद्ध में जनित व्यापक भावनाओं व अराजकता को एक
ही चित्र में समाहित करना, पिकासो के अद्भुत कौशल को तो दर्शाता है तथा शांति व मानवीयता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है जिसे उन्होंने “गर्निका” को लेकर बगैर किसी भी तरह से विचलित हुए व समझौता किए निभाया। यही कारण भी हैं कि आज दुनियाभर में जहां भी युद्ध व हिंसा के विरोध में तथा मानवाधिकार व शांति को लेकर आवज उठती है, उनमें “गर्निका” की भी भागीदारी होती है। वास्तव में, “गर्निका” एक ऐसी तावीज़ बन चुकी है जो हमें चिरकाल युद्ध की विभिषिका व त्रासदी पर चिरकाल टोकती पर साथ ही समानुभूति, चिंतन के लिए भी प्रेरित करती रहेगी।
“गर्निका” और पिकासो को लेकर एक वाक्या है। फ्रांस पर नात्सियों के कब्जे के दौरान, पिकासो पर भी नजर रखी जाती थी। एक दिन उनके स्टूडियों में एक नात्सी अधिकारी आया और दीवार पर “गर्निका” की एक फोटो को देख उसने पूछा, “यह तुमने किया है ?”
पिकासो ने बेहिचक जवाब दिया, “नहीं, तुमने किया है!”इतवार का दिन था और रीना सोफिया महज ढाई घंटे के लिए खुला था। लेकिन कब वह समय गुजर गया, मुझे एहसास ही नही हुआ। “गर्निका” के अलावा मैं दो- एक ही अन्य कमरों में घूम पाया (जिनमें साल्वा डौर डाली की भी कुछ कृतियां प्रदर्शित थी)। हम सभी अपने जीवन में असंख्य छोटे-छोटे सपने भी पालते हैं। “गर्निका” को सामने से देख पाना, मेरे
एक छोटे सपने की इच्छा पूर्ति थी।