स्वयं सहायता समूह अपनी राजनैतिक ताकत पहचानें

अजय कुमार

भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार देश भर में इस समय कुल 84,72,815 स्वयं सहायता समूह हैं। यदि इन प्रत्येक समूहों में औसतन 10 सदस्य हैं तो इन समूहों में सदस्यों की कुल संख्या लगभग 8,47,28,150 है। इकनाॅमिक टाइम्स में छपी एक रिर्पाट के अनुसार आगामी लोकसभा चुनाव में लगभग 96 करोड़ मतदाता सरकार को चुनेंगे। यदि ग्रामीण विकास मंत्रालय का दावा सही है तो लगभग 85 लाख स्वयं सहायता समूह में संगठित 8 करोड़ लोग (90 प्रतिशत महिलाएं) देश में राजनैतिक परिर्वतन का आधार क्यों नही बन सकते? हालांकि पिछले कुछ समय से देश के कुछ राज्यों में समूहों के फेडरेशन की ताकत सरकारों को बना व बिगाड़ रही है परन्तु वे राजनैतिक दलों के चुंगल में फसे हैं। उन्हें अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाते हुए राजनैतिक बदलाव के लिए सामने आना होगा।

ग्रामीण विकास मंत्रालय के साथ-साथ देश में अन्य कई सरकारी व गैर-सरकारी ऐजेन्सी भी आम जन को समूहों में संगठित होने के लिए प्रेरित करने के काम में लगी हैं। अनुमानों के अनुसार देशभर में आज 10 करोड़ महिलाएं स्वयं सहायता समूहों में संगठित हैं। देश के कई जिलों में बने स्वयं सहायता समूहों के फेडरेशन सामाजिक व आर्थिक उन्नयन के केन्द्र कहे जा रहेे हैं, वो राजनैतिक चेतना विकसित करनें के ऐसे केन्द्र क्यों नहीं हो सकते जो देश की राजनीति को निर्धारित करें।

उत्तराखण्ड राज्य में भी विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी योजनाओं के तहत राज्य के सभी तेरह जिलों में स्वंय सहायता समूह निर्मित हुए हैं व हो रहे हैं। कई जिलों में उनके फैडरेशन भी क्रियाशील हैं। अब तक इनको सामाजिक व आर्थिक बदलाव लाने वाले समूहों के रूप में ही समझा गया हैं। राजनीति ही जब हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन की निर्धारक है तो स्वयं सहायता समूहों को सिर्फ सामाजिक व आर्थिक बदलावो का मंच क्यों होना चाहिये ? समूहों की यह ताकत राजनीति में संगठित आवाज भी बन सकती हैै व राजनैतिक बदलाव भी ला सकती है।

उत्तराखण्ड राज्य में स्वयं सहायता समूहों व उनके फेडरेशन में संगठित महिलाओं के लिए यह अवसर है कि पहले चरण में वे स्थानीय शासन व्यवस्था जैसे ग्राम पंचायत व नगर निकायों में चुनाव लड़े, प्रशिक्षित हों, और अपने संगठन को मजबूत करें व दूसरे चरण में विधान सभा के चुनावों की तैयारी करें। राजनैतिक दलों के हाथ की कठपुतली बनने से अच्छा है कि लोक राजनीति की शुरूआत हो। दर्शन के रुप में उनके पास स्वयं सहायता का विचार तो है ही और, जब राज्य मशीनरी उनके नियंत्रण में होगी तो स्वयं सहायता की भावना दोहरी ताकत से कामों को अन्जाम देगी। यह स्थिति राजनैतिक दलों की मौजूदा अराजकता से हर हाल में बेहतर होगी।

स्वयं सहायता समूहों में संगठित लोगों की ताकत एक बहुत बड़ा राजनैतिक बदलाव ला सकती है। इससे सही मायनों में गणतन्त्र स्थापित होगा।

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