उत्तराखंड के पहाड़ों से

बची सिंह बिष्ट

2005 से ही हमने रामगढ़ और धारी की, फल पट्टी के सवालों को अलग अलग तरीके से सामने लाने की कोशिश की। हम राजनैतिक लोग नहीं हैं। सीमांत किसान और ग्रामीण कार्यकर्ता हैं। हमारे लोगों ने थोड़ा सा पानी बचाना सीखा तो उसका सीधा परिणाम उनके जीवन को बदलने लगा। लेकिन वे अपने हकों को लेकर, कभी बड़ी सोच नहीं रख सके।

हमने अपनी समझ से हिमालय और उसके परितंत्र की चिंताओं को सामने लाने की कोशिश की और रामगाड़ नदी को पैदल नापकर लोगों को संदेश दिया कि यह जीवन दायिनी, मुक्ति दायिनी अपना अस्तित्व खो रही है। इसका जलागम संकट में है। हमने उत्पादन के उचित मूल्य के सवाल और, लोगों को प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की जरूरत पर जागरूक करने की कोशिशें की और साथ ही समाज के पोषण, शिक्षण, स्वच्छता के मुद्दों को भी व्यवहारिक रूप में सामने रखा।

कोशिश तो की थी कि बच्चों के जीवन में बदलाव आए वे पुस्तकों से जुडें। लोग श्रमदान तो कर गए लेकिन किताबों से दूरी बनाकर चलने लगे।

बिना शिक्षा के कोई भी समाज कभी भी उन्नति नहीं करता। बड़े-बड़े अधिकारी, इंजीनियर, नीति निर्णायक पुस्तकों से अर्थात शिक्षा से ही बढ़ते-बनते हैं।

जैविक पहाड़ी फलों को लेकर व्यापारियों और लोगों के बीच संवाद को भी लाना चाहा। चूंकि लोग यह सब किसी प्रोजेक्ट और किसी व्यक्ति के आगे होने की बात से ही समझने की आदत में हैं। वे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सके।

आज भी सड़क है पर असुरक्षित है। राशन है पोषण नहीं है। स्कूल है लेकिन पद सृजित नहीं हैं। लोगों को हमेशा राजनैतिक लोगों और उनके भविष्य की चिंता रहती है। खुद के बारे में वे बेहद ही कम जागरूक रहते हैं।

मौका परस्ती, मूर्खता और दगाबाजी कभी भी चालाकी, होशियारी नहीं हो सकती, बल्कि वह मूढ़ता ही है जो पीढ़ियों से लोगों को उनके दायरे से बाहर नहीं आने दे रही।

हिमालय विशाल संरचना है। उसमें जमीन पर किया गया हरेक काम जैसे जंगल बचाने, पानी बचाने, खेती को जहर मुक्त रखने, जड़ी बूटियों का प्राकृतिक संरक्षण, वन्य प्राणियों और इंसानों के बीच संघर्ष की जगह सहयोग को बढ़ाने का काम, विशेष है और उसके करने वालों को बड़े विचार से जोड़ता है।

जितना भी संभव है हमने अनुभव जुटाने और पहाड़ों से तराई भाभर, नदियों और समुंदर तक के लोगों से जानने, समझने का प्रयास किया।लोगों के सामने बच्चों के भविष्य की चिंता रहती है। उनको लेकर वे पुश्तैनी जमीन तक को बेचने को मजबूर रहते हैं। लेकिन वे यह नहीं समझना चाहते कि स्कूल में पढ़ने वाले उनके बच्चे को शिक्षा कैसी मिलनी चाहिए, अभिभावक शिक्षक संघ की बैठकों में माताओं के साथ पिता की उपस्थिति क्यों जरूरी है।अधिकांश नई पीढ़ी के अभिभावकों के सामने कोई अनुभव ही नहीं है कि देश और दुनिया में शिक्षण का मतलब क्या हो चुका है।उसके साथ ही समाज में घुल रहा अनेक तरह का जहर उनके जीवन को बुरी तरफ जकड़ चुका होता है।

बात सिर्फ नशे की नहीं है। बात है तमाम राजनैतिक प्रचार तंत्र का फैलाया झूठ का विशाल भ्रम, जिसे अधिकांश लोग सच मानकर चीजें तय करने लगे हैं।

बात तो यह भी है कि लोगों के पास उनके खाने कमाने लायक जमीन हो, उसके उत्पादन की ठीक व्यवस्था हो। उनको मालूम रहे कि जिस जमीन को वे कमाते हैं वह उनकी ही है, उससे जहर मुक्त उत्पादन का उनको सही मूल्य मिले।वे देश की अनखोजी मंडियों तक अपने जहर मुक्त उत्पादन को लेकर जा सकें।

साथ ही उनकी मांग कि उनके पास जितनी आबादी है, उसके लायक जमीन हो और जमीन को पोषण देने लायक पर्याप्त जंगल भी हों। पर लोग आपस में लड़ जायेंगे।अपने हकों को लेकर कभी सरकार से नहीं लड़ेंगे।

नैनीताल में जब हमने 2005 में सबसे पहले प्रदर्शन किया तो बड़ी मुश्किल से लोग घरों से निकले। और जिलाधिकारी कार्यालय तक जाने में डरते रहे। क्या बोलेंगे यह तो पता ही नहीं था किसी को, अपने अधिकारियों से, सरकारी कर्मचारियों व प्रतिनिधियों से बात करने का तरीका भी लोगों को नहीं आता तो लोग बाहर से किसी झूठे व्यक्ति को सामने अगुवा बना लेते हैं। वे लोग जो मंदिरों की भीड़ में ज्यादा जाते देखे गए, कभी सामाजिक या भविष्य के सरोकारों में रुचि नहीं लेते। जलवायु परिवर्तन हो रहा है, हिमालय की सभी गैर बर्फानी नदियां, प्राकृतिक स्रोत सूखने लगे हैं। खेती तबाह हो रही है। वन्य जीव मानव संघर्ष बढ़ता जा रहा है और सरकार नीतिगत रूप से लोगों के जीवन से जुड़े विषयों पर काम करने में विफल हो चुकी है, यह विषय ज्यादा गंभीर है।

तब चालाक राजनैतिक तंत्र लोगों को बुनियादी मुद्दों से भटकाने को बातों का हव्वा खड़ा करता है। वह बुनियाद की जरूरतों पर बात करने की जगह धर्म और आस्था से खेलने वाले काम करता है। लोग भटकते हैं। वह बड़ी चालाकी से स्थानीय मंडी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, उचित मूल्य, ठीक परिवहन की व्यवस्था जैसे मुद्दों को हाशिए में डालकर लोगों के वोट हथियाने लगता है।

कुछ लोग पर्यावरण के पैरोकार बनते हैं और कुछ लोगों की चिंता पलायन की रहती है। कुछ ठीक चुनाव से पहले ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिनकी जड़े ही नहीं होती, और लोग चूंकि दूसरों की राजनीति करते हैं, अच्छे से भटक जाते हैं।

यह पूरी आबादी को गुलाम, सोच विहीन बनाने की साजिश है।

ग्रामीण अर्ध शिक्षित, जमीन से जुड़ी, खेती बागवानी करने वाली महिला से ज्यादा कोई जमीनी पर्यावरण का ज्ञान नहीं रखता। सब आंकड़े और फोटो प्रजेंटेशन ही करते हैं। वे काम करती हैं और उस को जीवित रखते हुए अपनी आजीविका भी चलाती हैं। उनका स्थान कहीं नहीं होता है। कुछ नौकरियों को पूरा करने के बाद कृषि बागवानी और जल संसाधन पर काम करने वाले लोग भी हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि जिनको वे समझा रहे हैं उनका पूरा जीवन इसी छोटी सी खेती किसानी पर निर्भर है। यदि उत्पादन नहीं हुआ या उसका सही मूल्य समय पर नहीं मिला तो वे अपना भरण पोषण मजदूरी से करने को मजबूर हो जाती हैं।

इससे निपटने के कई व्यवहारिक उपाय हैं।जिनमें पहला उपाय है, ग्राम परिवेश की स्वच्छता। भौतिक भी, वैचारिक भी।

उसके बाद लोगों को मिलकर अपने उत्पादन की समझ बढ़ाना और उसके हिसाब से देश के खाली बाजार तक उसको भेजना। मिलकर सामुहिक निर्णय लेकर हरेक उत्पादन को बेहतर से बेहतर बाजार उपलब्ध करवाना।

यह देश में कई जगह हुआ कि लोगों ने राजनैतिक पार्टियों की जगह अपने उम्मीदवार खड़े किए और अपने पक्ष में उनसे काम करवाया।

हमारी स्थिति तो एक अच्छा मास्टर लाने की नहीं है। हम वोट आज भी जिन बातों को डालते हैं, परिणाम भी वही मिल रहे हैं।

हमने स्कूल, सड़क,अस्पताल, रोटी रोजगार, मंडी बीमा और खेती बागवानी को बचाने पर वोटिंग की ही नहीं है। हमने व्यक्ति को, पार्टी को, उसके गलत कामों को वोट डाला और उसका परिणाम यही हुआ कि चंद लोग सभी के पैरोकार बनकर पार्टी और सरकारी फंड का फायदा उठाते हैं। हम बेईमान और वादे के झूठे हैं। वहीं हमने वोट किया, बदले में हमको ऐसे ही झूठे, बेईमान और वादा खिलाफी करने वाला प्रतिनिधि मिला…

” कुछ दिन गोवा में रहने के बाद यह अनुभव हुआ कि उन्होंने छोटे से राज्य को कितना तरीके से सजाया है। लगभग हरेक घर से सड़क जुड़ी है। खूब शराब का व्यवसाय है। पर अपराध कोई नहीं। लोग अनुभव से गांव तक चार भाषाएं बोल समझ लेते हैं। शिक्षण शालाएं बेहतर हैं। खूब हरियाली है। खनन और जंगल काटने के खिलाफ सरकारों से खूब लड़ते भी हैं । पर्यटन आधारित राज्य होने के बाद भी बेईमानी लगभग नहीं है।

लोगों की जुबान मीठी है। व्यापारिक और व्यवहारिक है। हरेक रूट पर बसें आसानी से सस्ती सेवा की उपलब्ध हैं और पर्यटकों को कोई तनाव नहीं देते।

पर्यटक भी बेहद गंभीरता से स्थानीय चीजों का सम्मान करते हैं। चर्च हैं, सैकड़ों साल पुराने मंदिर मस्जिदें हैं,और नए साईं मंदिर भी मौजूद है, धर्म  को लेकर कोई झगड़ा नहीं है।

बेखौफ घूमती महिलाओं को देखकर लगता है लोग बेहद सम्मान करते हैं महिलाओं का।

पुलिस के पास जाने का सवाल ही नहीं। लोग दूर रहते हैं बबाल करने से।

अंदर बहुत कुछ सवालिया जैसा होगा लेकिन आंख जो देखना चाहती है, वही दिखेंगी।

हम पर्वतीय उत्तराखंड में क्या कुछ ऐसा माहौल गांव-गांव बना सकते हैं…

याद रखिए लोग आपके खाने के भूखे नहीं होते। आपके पास जितनी जानकारी होती है वे उससे लाखों गुना ज्यादा जानकार होते हैं। एक सभ्य पर्यटक यहां हिमालय को निहारने, शांति पूर्ण पलों को जीने और यहां की अच्छी यादगार लेने के लिए आता है। लेकिन असभ्य पर्यटक पैसे का दिखावा करेगा और आपकी अच्छी चीज, अच्छे व्यवहार को गलत साबित करते हुए आपके स्थान को कूड़ा घर बना डालेगा।

जब आपके पास स्थानीय साफ सुथरा उत्पादन नहीं है, बोलने की असभ्य भाषा है, आप बिकने को हर दम तैयार हैं और आपके पास जानकारी इतनी भी नहीं है कि आप अपने स्थान के इतिहास भूगोल को भी बाहर से आए लोगों को बता नहीं सकेंगे, फिर यह झूठी अकड़ आपको बाहर से आए व्यक्ति के सामने खोलकर रख देगी।

हमको तो अपनी जल धाराओं में साफ पानी, गांवों में साफ सुथरे रहने के स्थान, अच्छे शौचालय, साफ रसोई और उसमें तरीके से बनाया जाने वाला पोष्टिक भोजन चहिए, और साथ-साथ हृदय भी स्वागत भाव से भरा हुआ बनाना पड़ेगा।

एक करोड़ उत्तराखंड वासी पांच करोड़ लोगों के आने का भुगतान करते हैं लेकिन हमारे ग्रामवासियों को सिर्फ कूड़ा, कभी घटिया सी नौकरी मजूरी और गलत आदतें ही मिलती हैं।

पर्यटन कारोबार बढ़ेगा ही यहां। लेकिन अधिकांश लोग होटलों में गार्ड और मजदूर होने की भी स्थिति में नहीं हैं, तब हमको क्या लाभ होना इससे…

लाभ तभी मिलेगा जब लोग बड़े स्तर से सोचेंगे। बच्चे स्कूलों की बात और बड़े अपने परिवेश को ठीक रखने की जिम्मेदारी उठाएंगे।

आंदोलन किसे कहते हैं यह पश्चिम घाट बचाने के अभियान ने बताया है। कोई पर्यावरण अवार्ड की दौड़ नहीं थी। छह राज्यों के लोगों का सामूहिक प्रयास अभी भी गतिशील है।नेतृत्व ने कभी नहीं कहा कि वह लोगों से हताश हैं, वे लगे रहे और अभी भी लगे हैं।सरकारें बदलती रही लेकिन आंदोलन बढ़ता रहा।

जमीन पर काम करने के लिए किसी फंड पुरूस्कार की जरूरत नहीं है। लोगों की संकल्प शक्ति जब चाहे बड़े ऐतिहासिक बदलाव कर सकती है। बदलाव कौन सा, जिनसे पीढ़ियों का भविष्य बदल सकता है। प्राकृतिक परिवेश के साथ ही स्थानीय परिवेश में बदलाव एक बड़ा सृजनात्मक आंदोलन बन सकता है। किसी सरकार के आगे झुकने की जरूरत नहीं।किसी की पार्टी बुक लेकर सदस्यता अभियान चलाने की जरूरत नहीं। कोई पद जरूरी नहीं।

सामने बड़ा लक्ष्य और उसके लिए तन और मन का समर्पण जरूरी है।

घमंड, अकड़ और झूठ को किनारे रखकर यदि लोग शुरू हो जाएं तो बदलाव अपने लिए होगा, सराहना दुनिया की मिलेगी।

झूठे, चोर, उचचके, लफ्फाज कभी आदर्श नहीं होने चाहिए। धनवाला भी आदर्श नहीं हो सकता। लेकिन आलस्य त्यागकर, सबके साथ मिलकर चलने वाला आदर्श अवश्य होना चाहिए।

जब लोगों को अपने बीच के वास्तविक व्यक्ति की पहचान हो जायेगी तो सच्चे लोग प्रतिनिधि बनेंगे और जो काम नीतियों के स्तर पर चाहिए वह होगा।

हमारे पास स्थानीय स्तर पर बेहतरीन लोग हैं।लेकिन समाज को उनकी पहचान ही नहीं है।

आजकल जो राजनीति में चल रहा। जैसा दिमाग बनाकर वोट लेने का खेल किया जा रहा, उससे सरकार तो बनगी लेकिन लोगों की तकदीर और तस्वीर नहीं बदल सकेगी।

इसलिए अपनों से कहना है कि यदि बदलाव नहीं चाहिए तो किसी को दोष मत देना क्योंकि तुम सिर्फ जीवित हो। कोई हिल-डुल तुम चाहते नहीं।

यदि बदलाव चाहते हो तो सबको साथ लेने के अलावा खुद को पूरी तरह अपने परिवेश के लिए समर्पित करके कुछ कर दिखाओ।

संकट सिर्फ परिवेश में ही नहीं हम सबके सामने अगली पीढ़ियों के भविष्य का है। जहां रोटी रोजगार के साथ उनकी शक्ति बढ़ाने, उनको उनके सपनों के लायक दुनिया सौंपने का सवाल भी है।

व्यावहारिक रूप से यदि समुदाय खुद के बीच विमर्श और निर्णय की प्रक्रिया से गुजरने को तैयार हो जाए तो बदलाव की शुरुआत हो सकती है।

जहां लोगों ने यह किया उनमें, उनके जीवन में बदलाव आए हैं और जहां मै की अकड़ थी, वह धीरे धीरे अपनी पहचान खोकर गायब हो चुके हैं।

कोई माने न माने हमें तो कह देना है ताकि खुद की जवाबदेही से मुक्त हो सकें।

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