लोक देवताओं पर भी कुपोषण की मार

प्रकाश कांडपाल

उत्तराखण्ड के लोक-देवताओं पर भी कुपोषण का खतरा मंडरा रहा है। बदलती जीवनशैली, नई पीढ़ी की खेती में अरुचि व जंगली जानवरों के आतंक की वजह से खेती खत्म होने के कागार पर है। ऐसे में लोक-देवता भी आमजन की तरह या तो राशन की दुकानों पर निर्भर हैं या रसायनिक खेती से उपजे अनाज के सहारे। ऐसा लगता है कि पीढ़ीयों से जैविक भोजन करने के आदि लोक-देवताओं का स्वास्थ्य खतरे में है।

असौज (आश्विन) मास अभी निपटा ही है। पहाड़ो में यह महिना साल के सबसे व्यस्ततम महिने के रुप में जाना जाता है, कारण पहले दिनों बरसात के बाद यह फसल सम्भालने का वक्त होता था। गहत, उड़द, मंडवा, धान, तोर मिर्च, रैंस, तिल, कौणी, जखिया, चौरा इत्यादि कई फसलें इस माह में तैयार होती थीं। फसलों को काटना, सुखाना, मांढ़ना, सम्भालना, काम ही काम था। सब्जियां भी खूब होती थी। घासनियों में घास भी तैयार रहता था। जिसे काटकर, सुखाकर, पूरे वर्ष के लिये सम्भाला जाता था। घास की प्रचुरता से दूध, दही, घी भी होता था। इन सब कामों से निपटकर मार्गशीष माह में लोक-देवताओं जैसे खलिया, भुनिया, नौलिया, बधाण इत्यादि को नई फसल का भोजन व घी में बना हलवा चढ़ाते थे। लोक-देवता तो प्रतीक थे, खाते तो बूढ़े, बच्चे, बड़े सब थे। उत्सव हो जाता था। पूरे महिने काम के बाद थकान उत्तर जाती थी

अब वक्त बदल चुका है। अब सब सुन्न हैं। सिवाय घास के कुछ नहीं है। खेत उजाड़ पड़े हैं। पिछले वर्ष भी गांव में पूजा हुई थी. लोगों का कहना था कि रिवाज तो निभाना है। आटे की जगह सूजी बाजार से आयी। हलवा रिफाइन्ड तेल में बना। खीर के लिये चावल तो राशन की दुकान के थे परन्तु दूध के पेकेट बाजार से लाने पड़े। उत्साह नदारद था। सामुदायिकता जो इन आयोजनों के मूल में हुआ करती थी, वह भी रश्मी तौर पर ही थी। अब तो यह सब आयोजन परिवार की आर्थिकी पर भार लगने लगा है। इस बार पौड़ी जिले के नैनीडांडा विकास खण्ड की अपनी अध्ययन यात्रा में भी हमने देखा कि खेती लगभग खत्म है। कई गांव घूमने पर हमने सिर्फ गौला गांव में ही खेती देखी। अल्मोड़ा जिले के सल्ट विकास खण्ड का हाल भी कुछ अलग नहीं है। यहां के कई गांवों में खेत अब उजाड़ हो चुके हैं। अब न बसन्त पंचमी पर जो मिलते हैं न घी-त्यार पर घी।इन हालातों में इस बार भी लोक-देवता राशन की दुकान व बाजार से लाये हुए अनाज द्वारा ही पूजे जायेंगे। उनकी पूजा तो किसी तरह हो जायेगी लेकिन, पहाड़ के लोग अब किस गुणवत्ता का अनाज कितनी मात्रा खा रहे हैं, पहाड़ो से भी बड़ा यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा है। युवा तो पहाड़ में हैं नहीं परन्तु यह प्रश्न पहाड़ मे रहने वाले बच्चों, महिलाओं व बुजुर्गों के पोषण-कुपोषण का भी है। सरकारों व समुदायों के चेत जाने का वक्त है।

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