प्रकाश कांडपाल
आज मोहित अत्यधिक सूकुन व प्रसन्नता महसूस कर रहा था। दो माह पूर्व अपने दादा धनीराम के गुजरनेे के बाद वह लगातार उदास था। वह इस दुख से नहीं उबर पा रहा था। वह लगातार परिवार में मुखिया (ग्वाव गुंसै) की कमी को महसूस कर रहा था। पिता के काफी पहले चल बसने के बाद दादा जी ने ही उसे संभाला था। 86 वर्ष की आयु में भी वह अपनी व्यावहारिक कुशलता के चलते परिवार के लिये दो वक्त की रोटी की जुगत कर ही लेेते थे, जबकि मोहित युवा शिक्षित होने के बाद भी रोजगार के लिये असहाय था। खुद के पास कोई रोजगार नहीं व ग्राम समाज में कोई सुध लेने वाला नहीं। वैसे भी इस मानवताहीन व विकृत मानसिता वाले समाज से वह पहले ही नाउम्मीदी में संपर्क तोड़ चुका था। न किसी के यहां आना-जाना न किसी से कोई आत्मीयता। बस जो मिल गया दिखावट की राम-राम हो गई। यह उसका एक तरह से समाज के प्रति बहिष्कार का भाव था। वह पढ़ा-लिखा था। और सामाजिक प्रपंचों को समझने का प्रयास करता था।
कल उसकी पत्नी की आंगनबाडी कार्यकर्ती के पद पर चयनित होने के खबर आई तो एक बार को लगा मानो सारे सपने साकार हो गए। सारे रास्ते खुल गए हों। इतनी प्रसन्नता जैसे इस समाज ने अंगीकार कर लिया हो। पहले धुमिल सा दिखने वाला भविष्य अब उजले सूरज की लालिमा की भांति स्पष्ट नजर आ रहा हो। साथ में विवाहित बहन भी बैठी थी। दादा जी के गुजरने के बाद पहली खुशखबरी सुनी तो दौड़ी चली आई। इस शोषणकारी व्यवस्था में यह पद प्राप्त करना मोहित के परिवार के लिए किसी यू0पी0एस0सी0 परीक्षा को पास कर लेने से कम न था। इसलिए उत्साह भी कम न था। वह चाहती थी इस खबर को सभी को बताये।
किंतु उसकी बात सुन मोहित उदास हो गया, वह अपने गांव के उस व्यक्ति या परिवार को पहचान नहीं पाई जिससे वह इस खबर को सुन प्रसन्नता महसूस करे व उसे भी प्रसन्नता हो। उसे कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखा जो उसे हृदय से इस सफलता की बधाई दे। क्या उसकी सफलता को यह समाज स्वीकार करेगा, जिस समाज ने कभी उसके परिवार की सामाजिक उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया, वह कैसे उसकी सफलता को स्वीकार करेगा। उसके साथ पढ़ चुके उसके गांव के मित्रों ने कभी उसके घर के अदंर बैठकर उसकी जिन्दगी को नहीं देखा तो वे इस सफलता के माइने क्या समझेंगे। वह भी इसी ग्रामीण समाज का हिस्सा है जहां पौ फटने के बाद भी अगर किसी के दरवाजे बंद रह जाएं तो पड़ोसी हल्ला कर उठा कर डांठ-डपट कर जाते हैं। किंतु उसके घर की चैखटें दरवाजे से युक्त हैं कि नहीं उसके सिवा किसी को नहीं मालूम।
उसकी इस जीवन यात्रा में अन्य की तरह उसकी सामाजिक समृतियां बहुत कम हैं, उसके बचपन से बडे़ होने तक बहुत कम यादें जुड़ी हुई हैं। ऐसा कुछ हुआ ही नहीं जिसे याद रख खुश हुआ जाय। उसने ग्रामीण समाज में हार-सार शब्द सिर्फ सुना है। वह इसका वास्तविक मतलब नहीं जानता। जबकि ग्रामीण समाज में यह अत्यधिक महत्वपूर्ण प्रचलित शब्द है। क्योंकि इसमें भावनात्मक एवं सामाजिक जुड़ाव से लेकर नैतिक व सामाजिक जिम्मेदारी व कर्तव्य समाहित होते हैं, किंतु वह कभी इन सबका हिस्सा नहीं बन पाया। उसे सिर्फ सामाजिक व मानसिक दास्ता का आभास हुआ। उसके सहपाठियों ने भी कभी उसे मित्र स्वीकार नहीं किया। उसे आज भी याद है कि कैसे जब वह और उसकी बहन अन्य बच्चों के साथ खेल रहे होते थे, तो उन्हें छोड़कर अन्य बच्चों को कन्या व लगूंर बनाकर बिठा दिया जाता था और वे प्रसन्नतापूर्वक हाथ में फल व 1 रु लेकर लौटते थे। गावों में बारात इत्यादि होने पर अन्य बच्चों को जिम्मेदारी सौंपी जाती थी और वह मूँह में लडडू दबाए खूब धमाल करते थे। उनका मन भी करता था कि वे भी ऊर्जा से भरे इस समूह में सम्मिलित हो जाएं और सारा आनंद समेट लें। किंतु वह मूक दर्शक ही बने रह गऐ। भोजन मिला तो सबसे अन्त में ठंडा बचा हुआ और खेत के एक कोने पर बैठकर। उसकी बहन कभी भी सखियों की हल्दी की रस्म में सम्मिलित नहीं हो पाई। उसे मंगलगान, सुवाल पथाई, महिला संगीत, मेहेंदी इत्यादि में सम्मिलित होने का कभी आमंत्रण नहीं मिला। बस ऐसे ही खड़ी रही पत्थर की मूर्ती बनकर। सारा जीवन न जाने कितने अरमानों व उमंगों का गला घोंट दिया गया। इस समाज में घुटते हुए जिया किंतु मौन रहा ।