सिमटती खेती, छूटते गाँव

आसना, श्रमयोग

पिछले 5-6 वर्षों से मैं ग्रामीण समुदायों के साथ संगठन निर्माण व आजीविका सम्पूरण जैसे क्षेत्रों में काम कर रही हूँ। इस दौरान जब भी मैं नए गांव के भ्रमण पर जाती हूँ तो कुछ ऐसा नया दिखता है जो सोचने पर मजबूर करता है। हाँ यह बात अलग है कि जब तक मेरे मन में कोई विचार आता है और उस पर अध्ययन करती हूँ तो यह पता चलता है कि उस पर पहले भी बहुत से लोग सोचकर व लिखकर समाज को संदेश दे चुके हैं। अच्छी बात यह है कि मुझे इस बात पर अब हैरानी नहीं होती बल्कि खुशी होती है कि मैं उस नजरिए से इस समाज को देख पाई।

पिछले दिनों की अपनी यात्रा में मैंने देखा कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों के गांवों में खेती तेजी से सिमटती जा रही है। खेत सिमट कर घर के पास की क्यारियों में आ गए हैं। गाँव कनेक्शन पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार 9 नवंबर 2000 को राज्य गठन के समय राज्य में 776191 हेक्टयर कृषि भूमि थी जो अप्रैल 2011 में घटकर 723164 हेक्टयर रह गई। इन वर्षों में 53027 हेक्टयर कृषि भूमि कम हो गई, इसका सीधा मतलब हुआ कि इतने समय अंतराल में प्रतिवर्ष औसत 4500 हेक्टेयर की गति से खेती योग्य जमीन कम हुई है। अब जितनी खेती हो भी रही है उसे बचाकर रखना बहुत बड़ी चुनौती है। लगातार बदलता मौसम (जलवायु परिवर्तन) फसलों को नुकसान पहुँचा रहा है।

मैं जिस गाँव में रहती हूँ वहां से 5 किलोमीटर की दूरी पर ड्योना गाँव है। वहां की महिलाएं समूह से जुडी हुई है। वहाँ वर्तमान में कम ही सही पर खेती होती है। ड्योना गाँव की महिलाओं के साथ जब मैंने खरीफ की फसलों को लेकर बात की तो उन्होंने बताया कि हाल के वर्षों में वर्षा में बहुत अनियमितता हो रही है। पानी सही समय पर न मिलने से बीते खरीफ सीजन में सभी फसलें खराब हो गई। कुछ समझ नहीं आता कि क्या करे? यह बात सिर्फ ड्योना गाँव की महिलाओं की नहीं है। बल्कि रचनात्मक महिला मंच से जुड़े 100 गांवों की महिलाओं की यही बात है। सर्दियों में बारिश के समय में बदलाव देखा जा रहा हैै, इससे गर्मी में पानी की समस्या भी उत्पन्न हो रही है। फिर कभी कम समय अन्तराल में इतनी अधिक बारिश हो जाती है कि तबाही हो जाती हैं।

फसलें कुछ मौसम की वजह से खराब हो रही है तो बची कुची कसर जंगली जानवर पूरी कर रहे हैं। कुछ वर्षों से जंगली जानवरों का आतंक ज्यादा बढ़ गया है। पैदावार न होने से और उसका दाम अच्छा न मिलने से किसान परेशान हैं। गाँव में महिलाएं अधिक संख्या में रह रही हैं, युवा आमतौर पर 12वीं कक्षा पास करने के बाद गाँव में नहीं रहते। खेती करने के लिए गाँव में लोग चाहिए। गाँव में रुकने के लिए लोगो को कुछ सहारा नजर नहीं आता इसलिए वो जा रहे हैं। बीबीसी में छपी द एनर्जी ऐंड रिसोर्स इंस्टिट्यूट और पाॅट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट की रिपोर्ट के अनुसार आने वाले सालों में जलवायु में परिवर्तन की गति और तेज होगी। उत्तराखण्ड ग्राम्य विकास और पलायन आयोग ने भी राज्य में बंजर हो रहे खेतों और पलायन को लेकर जारी अपनी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को एक बड़ी वजह माना हैं। पहाड़ों में किसानों की जोत बेहद छोटी और बिखरी हुई हैं। यहाँ सिर्फ 10 प्रतिशत खेतों में सिचाई की सुविधा है, बाकी खेती मौसम पर निर्भर करती हैं।

जीबी पंत कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ तेज प्रताप कहते हैं, अब हम उस दौर में पहुँच गए हैं, जहां खेती पर जलवायु परिवर्तन का असर बिलकुल स्पष्ट दिखाई दे रहा है। पहले ये कहा जाता था कि ग्लोबल वॉर्मिंग होगी तो जो फसलें जहाँ उगती हैं, उससे अधिक ऊंचाई पर शिफ्ट हो जाएंगी. मौसम हमें बता रहा है कि तापमान बढ़ने के साथ बारिश और बर्फबारी का पैटर्न भी बदल गया है।

ग्रामीण जीवन खेती कितानी के इर्द-गिर्द विकसित हुआ है परन्तु खेती-किसानी सिमटती जा रही है। उत्पादन ह¨ नहीं हो रहा है और ग्रामीणों का खेती से भरोसा उठ रहा है। परिणाम स्वरुप गाँव खाली हो रहे हैं।

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