द्वारिका प्रसाद उनियाल
ये जो पीतल की हांडी है
इसे हमारी गढ़वाली में
भड्डू बोलते हैं !
थोड़ा अलग और मजेदार शब्द है
ठेठ पहाड़ी!
आज कल मेरे ड्राइंग रूम में
सजा रहता है
दूर एक कोने में !!
वर्षों पहले,
जब गांव जाते थे
तो पूजनीय ताई जी
इसी में भात पकाती थी!
बड़ा स्वाद ओर महकती खुशबू
क्या कहने!
कभी जखिया डली दाल
तो कभी पहाड़ी आलू
सब पक जाता था!
अब न वो गांव का घर है
न धुआं फाॅकता अंधेरा चूल्हा
न पूजनीय ताई जी
सब वक्त के साथ
बिछुड़ते चले गये!
यह भड्डू रह गया
जो विरासत में पहले मां को मिला
अब मुझे!
इसका भी घर बदला
घर मे जगह भी!
अब इसे राख से कोई नही धोता
न ही इसके पेंदे में कालिख पुति होती है
यूॅ ही जब नजर गयी तो
ब्रासो से चमका देता हॅू मैं!
जब कोई घर आता है
ते इसकी बात छिड ही जाती है
उसी बहाने
रूमधार ,वो गेरू पुता घर,
उसका काला चूल्हा
भड्डू ,उसमें पके भात की बातें भी!
आगे बढ़ते समय को
भूत की याद दिलाता है ये !
शायद ऐसे ही
विरासतें जिन्दा रहती हैं!!