राकेश
चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। लोकतन्त्र में चुनाव एक त्यौहार की तरह है। चुनाव न केवल राजनैतिक परिश्य बदलते हैं बल्कि समाज के मुद्दों और चुनौतियों को भी उजागर करते हैं।
उत्तराखण्ड में चुनाव 19 अप्रैल को है। राजनैतिक पार्टियां अब फिर से 5 साल बाद क्षेत्र के लोगों को याद करेंगी। फिर से वादे और घोषणाएं। इन चुनावों में राजनैतिक पार्टियां अपनी तरफ से जो भी मुद्दे पेश करें परन्तु धरातल में जबरदस्त बेरोजगारी है। लोगों के पास कोई काम नहीं है और न ही कोई ऐसी आशा जिससे कोई रोजगार मिलता नजर आ रहा हो। युवा भर्तियों का इंतजार करते-करते अपनी उम्र सीमा पार कर गये हैं। जो परीक्षाएं हुई उनमें पेपर लीक हो गया। ध्याड़ी-मजदूरी का काम भी कम ही मिल पा रहा है। मनरेगा भी काफी समय से ठप पड़ा है। सरकार ने मनरेगा में अनलाइन उपस्थिति का नया नियम निकाला है। इंटरनैट नेटवर्क न होने के कारण वह कार्य भी नहीं हो पा रहा है। ग्राम प्रधान इसको लेकर परेशान हैं।
स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से चरमराई हुई है। अस्पतालों की बड़ी-बड़ी इमारतों का निमार्ण कर दिया गया है, किंतु सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं है। सल्ट में अभी 3 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र है पर इलाज नहीं मिल पाता। मरीजों को आमतौर पर रामनगर या काशीपुर के लिए रेफर कर दिया जाता है। समझ नहीं आता ये अस्पताल हैं या रेफर केन्द्र।
सल्ट में सड़कों की हालत बद से बदतर है। आये दिन दुर्घटना होती रहती हैं। रामनगर से सल्ट आने के लिए एक बरसाती गधेरा पार करना पड़ता है जिसका नाम है धनगड़ी। जिस पर पुल बनाने के लिए क्षेत्र की जनता लम्बे समय से सरकार से मांग कर रही है। कितु सरकार है कि मानती नहीं। यह मुद्दा भी इस बार के चुनावों में एक अहम मुद्दा बनेगा।
खेती का हाल बुरा है। खेती लगातार सिकुड़ती जा रही है। कृषि विभाग के साथ लोगों का संवाद नहीं है। लोग खुद से ही जितनी हो सके पारंपरिक रूप से खेती कर रहे हैं। लोगों को उनकी फसलों का सही दाम नहीं मिल रहा है, और न ही फसलों को बेचने के लिए कोई स्थानीय बाजार उनके पास है। जंगली जानवरों ने फसलों का ऐसा नुकसान कर रखा है कि किसान का मन खेती से ही उठ गया है। लोग अपने घरों के आस-पास सब्जियां बोने से भी डर रहे हैं। जंगली जानवर फसलों को ही नहीं लोगों को भी नुकसान पहुँचा रहे हैं। आये दिन बाघ और बंदर लोगों को घायल कर रहे हैं। लोग पलायन करने को मजबूर हैं। 2011 की जनगणना में सल्ट क्षेत्र की आबादी लगभग 56000 थी जो अब घट कर आधी से भी कम रह गयी है।
प्रदूषण और पर्यावरण को लेकर बस इतना ही काम हो पाया है कि घर-घर कूडे की बाल्टी और ग्राम सभा में प्लास्टिक कूड़े के लिए एक जाली वाला कूड़ा घर, पर उसमें रखे कूड़े का करना क्या है यह किसी को नहीं पता। ग्राम प्रधानों को सख्त निर्देश हैं कि प्लास्टिक का कूड़ा उसी में डाला जाये, और उसे ले जाने के लिए कूड़ा गाड़ी आयेगी। पर कूड़ा गाड़ी तो दूर की बात है यातायात के लिए भी गाड़ी आ जाये फिलहाल वही बहुत है। जहां देखो प्लास्टिक का कूड़ा बिखरा पड़ा है। गधेरे, नदियां, और पानी के स्रोतों में प्लास्टिक बह के जा रहा है।
सड़कें खस्ताहाल हैं। मुददे् बहुत हैं पर समाधान का पता नहीं है। सल्ट की जनता ने उत्तराखण्ड बनने से लेकर आज तक हर मामले में अपने आप को ठगा सा महसूस किया है। सामुदायिक मुद्दों की आवाज बनने को कोई राजी नहीं है। मुख्य धारा की मीडिया को इससे कोई मतलब है नहीं। वह बस नफरत फैलाने के कारोबार में हैं। लोग भी समाचारों को देख-देख उसी रंग में रंगने लगे है, और भुलाने लगे हैं उन मुद्दों को जिसके लिए सरकार चुनी जाती है। पर अबकी बार लोगों में गुस्सा है। रोज कहीं न कहीं से चुनावों के बहिष्कार की अपील की खबरें आ रही हैं। अब सवाल है कि जनता क्या फैसला करती है। 4 जून को साफ हो जाएगा।